Natasha

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राजा की रानी

दूसरे दिन सुबह ही हमारी होटल में बाबू की चरण-धूलि आ पड़ी और दोनों भाइयों की बड़ी देर की बातचीत के बाद उन्होंने बिदा ग्रहण की। तब से दोनों भाइयों का कुछ ऐसा हेल-मेल हों गया, कि-सुबह नहीं, संध्याट, नहीं-बाबू साहब 'भइया, भइया' कहकर पुकारते हुए लगे जब तब आ उपस्थित होने और फुसफुस खुसखुस सलाह-संलाप करने और खाने-पीने की तो कोई सीमा ही नहीं रही। एक दिन संध्यास को वे अपने भइया को और मुझे भी चाय-बिस्कुट का निमन्त्रण दे गये।

उसी दिन उनकी बर्मी स्त्री से मेरी अच्छी तरह बातचीत हुई। वह अतिशय सरल, विनयी और भली है। प्यार करके स्वेच्छा से ही उसने विवाह किया है और तब से शायद एक दिन के लिए भी इन्हें कोई दु:ख नहीं दिया। कोई चार-पाँच दिन बाद बड़े भइया ने मुसकराते हुए कान में कहा, कि परसों सवेरे के जहाज से हम लोग घर जा रहे हैं। सुनकर मुझे कुछ डर-सा लगा; पूछा, “आपके भाई यहाँ फिर लौटकर तो आयँगे?

बड़े भइया बोले, “अब? राम-राम करके किसी तरह एक दफे जहाज पर चढ़ तो पावें!”

मैंने पूछा, “यह स्त्री को जता दिया है?”

बड़े भइया बोले, “बाप रे! तब क्या हम बच सकेंगे? साली जो जहाँ होंगी रक्त-बीज की तरह आकर घेर लेंगी।” यह कहकर और फिर दोनों ऑंखें मिचकाकर हँसते हुए बोले, “फ्रेंच लीव्ह महाशय, फ्रेच लीव्ह- आप समझे या नहीं?”

मुझे अत्यन्त क्लेश मालूम हुआ, बोला “ऐसा हुआ तब तो स्त्री को अत्यन्त कष्ट होगा।”

मेरी बात सुनकर बड़े भइया तो हँसी से लोट-पोट हो गये। किसी तरह हँसना बन्द करके बोले, “वाह, आपने भी खूब कहा! इन बर्मी औरतों को कष्ट? इन सालियों की जात के लोग खाकर कुल्ला तक नहीं करते, न इनके यहाँ जूठे-मीठे का विचार है, और न जात-पाँत का। साली सब नेप्पी (एक तरह की सड़ाई हुई मछलियाँ) खाती हैं महाशय, जिसकी दुर्गन्ध के मारे भूतनी-पिशाचियाँ तक भाग जावें। इन सालियों को और कष्ट! एक चला जायेगा तो दूसरे को पकड़ लेंगी-छोटी जात की हैं सालीं-

“ठहरिए महाशय, ठहरिए। आपके भाई को उसने जो इन चार वर्षों तक राजा की तरह खिलाया-पिलाया है, और कुछ न हो, इसके लिए भी तो उसका कुछ कृतज्ञ होना चाहिए।”

बड़े भाई का मुँह गम्भीर हो गया। वे कुछ देर चुप रहकर बोले, “आपने तो मुझे अवाक् कर दिया महाशय। मर्द-बच्चे हैं, विदेश की धारती पर आकर यदि उम्र के दोष से कुछ शौक कर ही डाला तो क्या हुआ? और फिर कौन है जो ऐसा नहीं करता, कहिए न? मुझसे तो कुछ छुपा है नहीं- इसका कुछ खुल पड़ा है- सब लोग जान गये हैं, बस-सो इसीलिए क्या चिरकाल तक इसे इसी तरह फिरते रहना होगा? भला बनकर, गृहस्थ-धर्म चलाकर, फिर से पाँच पंचों में अपना स्थान ग्रहण न करना होगा? महाशय, यह तो कुछ बात ही नहीं है, कच्ची उम्र में तो कितने ही लोग होटल में जाकर मुर्गी तक खा आते हैं। किन्तु उम्र पकने पर क्या ऐसा करते हैं? आप ही विचार कीजिए न, मैं कहता हूँ सो सच है कि झूठ?”

वास्तव में यह विचार करने जैसी बुद्धि भगवान ने मुझे नहीं दी, इसलिए मैं चुप रह गया और ऑफिस का समय हो रहा था इसलिए, नहा-खाकर चल दिया।

किन्तु, ऑफिस से लौटते ही वे फिर एकाएक बोल उठे, “मैंने सोच देखा, आपकी सलाह ही ठीक है महाशय! इस जात का कुछ भरोसा नहीं, क्या जाने जाते-जाते अन्त में क्या फसाद खड़ा कर दे। कहकर जाना ही ठीक है। साली जो न करें सो थोड़ा। न लाज है न शरम, और न कुछ धर्म का ज्ञान। इन्हें यदि जानवर कहा जाय तो भी कुछ बेजा नहीं है।”

मैंने कहा, “हाँ, यही ठीक है।”

किन्तु, उसकी बात पर मैं विश्वास न ला सका। मन ही मन मुझे ऐसा लगा कि इसके भीतर कोई षडयन्त्र है। किन्तु, वह इतना नीच, इतना निष्ठुर होगा-ऑंखों से देखे बगैर कोई उसकी कल्पना भी कर सकेगा, यह मैं नहीं सोच सका।

चटगाँव का जहाज रविवार को जाता है। ऑफिस बन्द था। सुबह के समय और करता ही क्या; उन्हें 'सी ऑफ' (=बिदा) करने के लिए जहाज-घाट पर जा पहुँचा। जहाज उस समय जेटी से लगा हुआ था। जाने वाले दोनों श्रेणियों के लोगों की दौड़-धूप, चीख-पुकार में कोई किसी की बात नहीं सुन सकता था।

यहाँ वहाँ देखते ही उस बर्मी स्त्री पर नजर पड़ गयी। एक किनारे वह अपनी छोटी बहिन का हाथ पकड़े खड़ी है। सारी रात रोते रहने के कारण उसकी दोनों ऑंखें ठीक जबा के फूलों की तरह हो रही हैं। छोटे बाबू बहुत ही व्यस्त हैं। वे अपनी दो चक्रों की गाड़ी (साइकिल), ट्रंक, बिस्तर तथा और भी न जाने क्या-क्या लिये कुलियों के साथ दौड़-धूप कर रहे हैं-उन्हें क्षण-भर का भी अवसर नहीं है।

धीरे-धीरे सारी चीजें जहाज पर चढ़ गयीं, यात्री लोग भी सब ठेल-ठालकर ऊपर चढ़ गये। जो यात्री नहीं थे वे नीचे उतर आए, सामने की ओर से लंगर उठने लगा। इसी समय छोटे बाबू अपने सामान को हिफाजत से रखकर और जगह ठीक करके अपनी बर्मी-स्त्री से बिदा लेने के छल से संसार के निष्ठुरतम अंक का अभिनय करने के लिए जहाज पर से नीचे उतरे। द्वितीय दर्जे के यात्री थे, इसलिए उन्हें यह अधिकार प्राप्त था।

मैंने अनेक दफे सोचा है कि इसकी भला क्या जरूरत थी? मनुष्य जबर्दस्ती अपनी मानव-आत्मा को इस तरह क्यों अपमानित करता है? मन्त्रदीक्षित पत्नी न हुई तो क्या हुआ, किन्तु वह स्त्री तो है! वह कन्या भगिनी जननी की जाति की तो है। उसी के आश्रय से वह इतने सुदीर्घ समय तक पति के समस्त अधिकारों का उपयोग करता हुआ वहीं रहा है। उसने तो अपने विश्वस्त हृदय की सारी मधुरता, सारा अमृत, सम्पूर्ण शरीर और मन उस पर समर्पित कर दिया है। फिर किस लोभ से वह इन अगणित लोगों की ऑंखों में उसे इतने बड़ें निर्दय परिहास और तमाशे की चीज बनाकर चलता बना। वह एक हाथ से रूमाल के द्वारा अपनी दोनों ऑंखें ढंके हुए है और दूसरा हाथ अपनी बर्मी स्त्री के गले में डाले हुए रोने के स्वर में बहुत कुछ कह रहा है। स्त्री ऑंचल में मुँह छिपाये रो रही है।

¹ यह बंगला मुहाविरा है, अर्थ-अंगूठा दिखाकर।

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